
भारत के आजादी की लड़ाई में अखिल भारतीय किसान सभा तथा उसके द्वारा चलाये गये किसान आंदोलनों की बड़ी महत्वपूर्ण भागीदारी रही है|स्वामी सहजानंद सरस्वती इस किसान आंदोलन के अग्रणी नेता थे| दण्डी सन्यासी होने के बावजूद सहजानंद ने रोटी को हीं भगवान कहा और किसानों को भगवान से बढ़कर बताया|स्वामीजी ने नारा दिया था - जो अन्न -वस्त्र उपजायेगा, अब सो कानून बनायेगा |
ये भारतवर्ष उसी का है अब शासन वही चलायेगा|| सहजानंद सरस्वती के समकालीन नेता रामबृक्ष बेनीपुरी ने स्वामी सहजानंद की जीवनशैली के बारे में लिखा है कि "वह जनता का अपना आदमी है|वह रहता है जनता के बीच, उसी की तरह|वह बोलता है जनता की बात, उसी की वाणी में|"निस्संदेह, वह भारतीय किसान आंदोलन का एकक्षत्र नेता है|उसे बादकर दीजिए, अखिल भारतीय किसान सभा बिना प्राण का शरीर मालूम पड़े|भारतीय किसानों की विद्रोह भावना का प्रतीक, जिनकी ताकत पर उसे इतना विश्वास है कि यदि कभी हम उसके मुँह से यह सुन लें कि अकेले किसान हिंदुस्तान में स्वराज स्थापित कर सकता है, तो हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए | "स्वामी सहजानंद का जन्म 22 फरवरी 1889 को महाशिवरात्रि के दिन उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के देवा ग्राम में हुआ था |
स्वामी सहजानंद सरस्वती का जीवन जहां एक वेदांती सन्यासी के रूप में शुरू हुआ वह अपनी अंतिम परिणति में मार्क्सवादी पद्धति का अनुगमन करता है|
स्वामी जी शुरुआत में जातिगत सुधार के आंदोलन से जुड़े, उसके बाद गांधीजी से प्रभावित होकर असहयोग आंदोलन से जुड़े, असहयोग आंदोलन के दौरान जेल प्रवास में स्वामी जी का सामना गांधी जी के सुविधा भोगी चेलों से हुआ|आजादी आंदोलन का कोई भी बडा़ नायक ऐसा नहीं रहा जो शुरूआत में गांधीजी से प्रभावित न हुआ हो तथा बाद में उसका मोहभंग न हुआ हो|
असहयोग आंदोलन के दौरान स्वामी जी को यह अनुभव हुआ कि भारत में अंग्रेजी शासन का आधार देसी साम्राज्यवादी सामंत और जमींदारी रियासतें हैं|किसान,मजदूरों के शोषण और पीड़ा से व्यथित होकर स्वामीजी ने उनके पीड़ा को हरने हेतु अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया|स्वामी सहजानंद का व्यक्तित्व परिवर्तनशील था उन्होंने जातिगत आत्मगौरव के सुधार से उपर उठकर देश के बारे में सोचना शुरू किया तो देश के दुश्मन हीं उनके सबसे बड़े दुश्मन बन गए| जातिगत सुधार की भावना जाती रही| जब उन्होंने किसान मजदूरों का प्रतिनिधित्व करना शुरू किया तो सिर्फ और सिर्फ उनके सुख-दुख स्वामी जी के सुख-दुख हो गए| जमींदारी व्यवस्था को लेकर एक समय वे अंतर्विरोध से घिरे हुए थे| लेकिन जब उन्होंने किसानों और मजदूरों का सही तरह से आकलन किया तो जमींदारी व्यवस्था उनकी नजर में साम्राज्य शाही से भी ज्यादा शोषण का तंत्र मालूम होती है| राहुल सांकृत्यायन ने इस ओर ध्यान दिलाते हुए लिखा है कि "1935 में किसान सभा कौंसिल में जमींदारी प्रथा के उठा देने का प्रस्ताव रखा गया|स्वामी जी ने विरोध किया अभी भी उनके मन में जमींदारों के लिए कोमल स्थान था|नवंबर में हाजीपुर की प्रांतीय कांग्रेस में उन्होने खुद जमींदारी प्रथा हटा देने का प्रस्ताव पास कराया"|ये एक बड़े व्यक्तित्व की पहचान होती है|जो खुद के पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने व्यवहारिक ज्ञान को विस्तृत करते हुए समाज के हित के बारे में विचार करे|उन्होने देश के स्वराज और किसान मजदूरों को अलग करके नहीं देखा|उनकी नजर में जितना साम्राज्यशाही स्वराज के रास्ते में बाधक है उससे कहीं ज्यादा जमींदारी व्यवस्था बाधक है|
स्वामी जी के बारे में सुभाष चंद्र बोस की राय थी कि यदि कोई 1939-40 में देश में क्रांति करने की पूरे देश में आंदोलन करने की पूरे देश को नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता रखता है तो वह व्यक्ति है स्वामी सहजानंद सरस्वती|स्वामीजी किसान मजदूरों के आधार थे|उनके रहते हुए किसानों के हित को लेकर जितने कदम उठाये गये वे अधिकांशतः सफल रहे|उनके प्रयासों से हीं जमींदारी प्रथा खत्म हुई| स्वामी जी ने "मेरा जीवन संघर्ष "में लिखा है- मुनि लोग तो स्वामी बन के अपनी हीं मुक्ति के लिए एकांतवास करते हैं|लेकिन मैं ऐसा हर्गिज नहीं कर सकता|सभी दुखियों को छोड़ मुझे सिर्फ अपनी मुक्ति नहीं चाहिए|मैं तो इन्हीं के साथ रहूँगा और मरूँगा -जीऊँगा| आजादी के बाद स्वामी सहजानंद सरस्वती ने 12-13मार्च 1949को ढकाइच जिला शाहाबाद में बिहार प्रांतीय संयुक्त किसान आंदोलन में कहा था कि "मरखप के हमने आजादी हासिल की |मगर आजादी का यह सिक्का खोटा निकला |आजादी तो सभी तरह की होती है न? भूखों मरने की आजादी, नंगे रहने की आजादी, चोर डाकुओं से लुटपिट जाने की आजादी, बीमारियों में सड़ने की आजादी भी तो आजादी हीं है न? तो क्याहमारी आजादी इससे कुछ भिन्न है ? अंग्रेज लोग यहाँ के सभी लोहे, कोयले, सीमेंट और किरासिन तेल को खा पीकर तो चले गये नहीं|ये चीजें तो यहीं हैं और काफी हैं |फिर भी मिलती नहीं! जितनी पहले मिलती थी उतनी भी नहीं मिलती है| स्वामी जी की मृत्यु 61 वर्ष की अवस्था में 26जून 1950 को हुई थी| दिनकर ने उन्हें दलितों का सन्यासी कहा था .
निज से विरत ,सकल मानवता ,के हित में अनुरत वह
निज कदमों से ठुकराता मणि ,मुक्ता स्वर्ण -रजत वह
वह आया ,जैसे जल अपर ,आगे फूल कमल का
वह आया ,भूपर आए ज्यों ,सौरभ नभ -मंडल का
लोकभाव अंजलि, ये सबके लिए , लिए कल्याण
आया है वह तेज़ गति से ,धीर वीर गुणगान
आया है जैसे सावन के आवे मेघ गगन में
आया है जैसे आते कभी सन्यासी मधुवन में
हवन पूत कर में सुदंड ले मुंडित चाल बिरागी
आया है नवपथ दिखलाने ,दलितों का सन्यासी
दलितों के संन्यासी को उनके पुण्यतिथि पर नमन







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