1981में राष्ट्रीय पुलिस आयोग और 1998 में रिबेरो कमिटी ने अपनी सिफारिशें सरकार को दी लेकिन किसी सरकार ने इन सिफारिशों को लागू करने की इच्छाशक्ति क्यों नहीं दर्शाया?
इतिहास में पुलिस पर कई आयोग और समितियां बनी सबों ने अच्छे - अच्छे सुझाव दिए जिसमे अपराध नियंत्रण में जो कमी रह जाती है तथा उन कमियों को कैसे पूरा किया जाए उसका उल्लेख था। लेकिन जितनी भी सरकारें आती हैं उनको सहज आभास मिलता है कि पुलिस से अच्छा कोई तंत्र नहीं हो सकता है जिसके माध्यम से विरोध को दबाया जा सके। इसलिए कोई भी सरकार इन सिफारिशों को लागू करने में अभिरुचि नहीं दिखाती है।
संयुक्त राष्ट्र के मानक के अनुसार एक लाख व्यक्तियों पर 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए जबकि भारत में ये आंकड़ा 156 है। अतिरिक्त दबाव से पुलिस का काम कितना प्रभावित होता है?
यह मानक एक गणितीय मॉडल पर आधारित होता है और हर देश का मॉडल थोड़ा अलग-अलग होता है। 222 कोई ऐसी संख्या नहीं है जो आ जाए तो फिर पुलिस बिलकुल दबाव में नहीं रहेगी और 156 रहेगा तो बहुत अधिक दबाव में रहेगी। अपने पास उपलब्ध मानव संसाधन को ध्यान में रखते हुए किसी देश की पुलिस किस तरह का प्रयास करती है यह महत्वपूर्ण है।
पुलिस की कार्यप्रणाली पर कई बार सवाल उठते रहे हैं। कम्युनिटी पुलिसिंग के द्वारा इसमें सुधार की कितनी गुंजाइश है?
कम्यूनिटी पुलिसिंग की चर्चा मैं बहुत वर्षों से सुन रहा हूं। उत्तर भारत के मुकाबले दक्षिण भारत में इसका उपयोग ज्यादा हुआ है। मैं समझता हूं कि जहां हिंसक अपराध बहुत ज्यादा होते हैं वहां कम्यूनिटी पुलिसिंग का बहुत असर नहीं होता है। जहां छोटे-मोटे अपराध और नियम कानून का उल्लंघन ज्यादा होता है उसमे कम्यूनिटी पुलिसिंग की सार्थकता अधिक होती है। बिहार या उत्तर प्रदेश जैसे राज्य जहां हिंसक अपराध बहुत ज्यादा होते हैं वहां कम्यूनिटी पुलिसिंग शायद उतना कारगर नहीं हो पाएगा।
सितंबर 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधारों के लिए सात स्पष्ट निर्देश जारी किए थे उन पर कागजी खानापूर्ति से बात आगे क्यों नहीं बढ़ी?
मूलतः पुलिस राज्य सरकार का विषय है। माननीय उच्चतम न्यायालय का जो आदेश है उसके बारे में कोई भी राज्य सरकार खुलेआम तो नहीं बोलती कि हमलोग नहीं करेंगे लेकिन लागू करने से कतराती है क्योंकि उसमे राज्य सरकार का जो नियंत्रण है पुलिस पर वो कमजोर हो जाता है। कोई भी राज्य सरकार चाहे जिस पार्टी की हो ऐसा नहीं चाहेगी।
सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस स्वायत्तता के लिए स्टेट सिक्योरिटी कमीशन बनाने का सुझाव दिया था। पुलिस के लिए स्वायत्तता कितना जरूरी मुद्दा है?
पुलिस की इमेज अगर सुधर जाए और जनता में उसकी स्वीकार्यता होने लगे तो स्वायत्तता अपने आप आ जायेगी। जनता आगे बढ़कर पुलिस की स्वायत्तता की मांग करने लगेगी। जबतक आम जनता में स्वीकार्यता नहीं बढ़ेगी स्वायत्तता भी नहीं आएगी।
हाल के दिनों में एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल किलिंग को कई राज्य सरकारों द्वारा बढ़ावा मिला है। आप इसके क्या परिणाम देखते हैं?
इससे कानून व्यवस्था अच्छा होने के बजाए खराब हीं हो जाती है। ऐसा नहीं है कि अपराधी अगर मर जाएगा या मार दिया जाएगा तो अपराध बंद हो जाएगा। उसके तरीके दिए गए हैं और बड़ी बात ये है कि अगर कोई सरकार समझती है कि इससे अपराध रुक सकता है तो एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल किलिंग को लीगल बना दे। ये अगर ऐसा नहीं करते हैं तो इसका मतलब अंदर से भय है और उपर से बोल रहे हैं।
साइबर वारफेयर के दौर में स्मार्ट पुलिसिंग कितना जरूरी हो जाता है?
बेहद जरूरी है। टेक्नोलॉजी इम्प्रूव कर गया है। अपराधी टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर रहे हैं तो पुलिस को भी उतना हीं अधिक इस्तेमाल करना पड़ेगा।
क्या मौजूदा पुलिस कानूनों द्वारा अपराध को नियंत्रित किया जा सकता है? इसका कोई उदाहरण आप अपने कार्यकाल से दे सकें तो बेहतर होगा।
बिलकुल किया जा सकता है। कानून वही रहता है उसका इस्तेमाल कैसे किया जाए ये पुलिस का जो मुखिया होता है उसके अपने बुद्धि और विवेक पर निर्भर करता है। आर्म्स एक्ट एक छोटा सा एक्ट है जिसमें कोई ज्यादा सजा नहीं है। उसको हमलोगों ने केवल एक साल लागू किया ढंग से (बिहार में स्पीडी ट्रायल के नाम से बहुचर्चित) जिसमें अवैध हथियार रखने वाले को दो-दो साल की सजा हुई और एक महीने के भीतर सजा कराई गई। इसने अपराधियों के मन में इतना भय उत्पन्न किया कि उन्होंने हथियार रखना छोड़ दिया।
कुछ राज्यों में बिना न्यायिक प्रक्रिया के पुलिस द्वारा कथित आरोपियों के घर पर बुलडोजर चलाने को आप कैसे देखते हैं?
पुलिस की उत्पत्ति कानून के कोख से होती है। उसके पूरे जीवनकाल का क्रियाकलाप भी कानून के नियमों से चलता है। इसलिए पुलिस कोई भी ऐसा काम नहीं कर सकती है जो उसकी उत्पत्ति और उसके क्रियाकलाप में मदद करने वाले कानून के विपरीत हो। जो भी कारवाई कानून सम्मत नहीं होगी वो पुलिस की करवाई नहीं है वो फिर गैर पुलिसिया कार्रवाई है। हरेक राज्य के कुछ स्थानीय कानून होते हैं। यूपी में उन्होंने शायद कोई कानून बना लिया है जिसके बारे में मैंने पढ़ा नहीं है, बिना पढ़े मैं इसपे कोई टिप्पणी नहीं कर सकता।
हाल में घटित हुए सांप्रदायिक घटनाओं में पुलिस पर पक्षपात का आरोप लगा है। क्या पुलिस का सांप्रदायिकरण हो रहा है?
अगर कानून में लिखा हुआ है कि पुलिस को सांप्रदायिक होना है तो पुलिस सांप्रदायिक हो जाएगी।
जो कानून में लिखा हुआ है पुलिस को वही करना चाहिए। पिछले तीन चार सालों से मैं देख रहा हूं कि लोग इसके विरोध में जो आवाज उठा रहे हैं सोशल मीडिया के माध्यम से उठा रहे हैं जबकि लोग न्यायालय में नहीं जा रहे हैं। जबसे सोशल मीडिया की ताकत बढ़ने लगी तबसे न्यायालय की भूमिका सोशल मीडिया ने ले लिया। उसका परिणाम होता है कि जनता को कोई राहत नहीं मिलती।
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