भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फेलो रहे सामाजिक, राजनीतिक चिंतक और इतिहासकार रमाशंकर सिंह से उत्तर प्रदेश चुनाव नतीजों पर बातचीत।
बीजेपी के हिंदुत्व के साथ विकास के एजेंडे पर एक बार फिर मुहर लगी है ?
रमाशंकर सिंह : हिंदुत्व के साथ विकास के एजेंडे पर मुहर लगी है- यह कहने के बजाय मैं यह कहूँगा कि 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा ने हिंदुत्व को एक सीमा पर ले जाकर नियंत्रित कर लिया है। वे लोग जो 2019 तक भाजपा के मतदाता बनाए जा चुके थे, उनको तो हिंदुत्व की पिच पर थामे रखा गया है, इसी के साथ भाजपा ने भारतीय समाज के सबसे गरीब तबके को कल्याण के साथ हिंदुत्व भी थमा दिया है। इसके साथ ही सरकार की एक बहुत ही ‘केयरिंग इमेज’ भी आम जनता तक ले जाने की कोशिश की गई है। यह काम भाजपा ने अपने पार्टी कैडरों के रोजमर्रा के काम में शामिल कर दिया है। अब वे रोज भाजपा, सरकार और हिंदुत्व का प्रचार करते हैं। सब पर बराबर ध्यान देते हैं। जब भाजपा के विरोधी कहते हैं कि साँड़ फसल खाए जा रहे हैं तो भाजपा, सरकार के समर्थक और जनता का एक हिस्सा कहता है कि सरकार अनाज भी तो दे रही है। समाज का यह वाला हिस्सा ज्यादा बड़ा है।
भाजपा उस झिलमिल तस्वीर जैसी हो गई है जो अलग-अलग जगहों से देखने पर अलग-अलग दिखती है।
जिसका पेट भरा है, उसे भाजपा ‘विदेशों में भारत का सम्मान बढ़ाने वाली’ पार्टी दिखती है। यह वह वर्ग है जो टीवी और व्हाट्सएप खबरों का उपभोक्ता है। जो प्रोफ़ेसर हैं और आगे बढ़ना चाहते हैं, मसलन कहीं किसी बड़े आयोग के सदस्य या उपकुलपति बनना चाहते हैं, उनके हिसाब से भारत का पुनर्जागरण हो रहा है। गरीबों को, विशेषकर उन्हें जो भूखे पेट रह जाते थे, उनको यह पार्टी अन्नदाता के रूप में दिखती है। वे लोग जो मुस्लिमों से घृणा करते हैं, उनको भाजपा में हिन्दू हितों को आगे बढ़ाने वाली पार्टी दिखती है। कुछ को यह ‘वंशवाद’ से मुक्त पार्टी दिखती है। कभी-कभी यह लक्षण आप एक ही व्यक्ति में देख सकते हैं। इस प्रकार कई-कई छोटे-छोटे कारण मिलकर भाजपा की सफलता का आख्यान रचते हैं और मीडिया द्वारा रोज सुबह उस ‘आख्यान का पुनरुत्पादन’ होता है। इसके अतिरिक्त कांग्रेस, सपा और बसपा सहित अन्य विपक्षी पार्टियों को भाजपा के प्रचारतंत्र ने लगभग नकारा घोषित किया हुआ है। वह नैरेटिव भी काम करता है। हालाँकि, इस बार यह नैरेटिव ओमप्रकाश राजभर और अखिलेश यादव ने तोड़ तो दिया है लेकिन वे भाजपा का मुकाबला नहीं कर पाए। इसका एक कारण यह भी था कि योगी आदित्यनाथ की सरकार ने ग्रामीण और शहरी भारत में गरीबों को बिना किसी भेदभाव के अनाज उपलब्ध कराया।
कोविड कुप्रबंधन और बेरोजगारी जैसे मुद्दे पर बेहतर कानून व्यस्था और मोदी सरकार की जनकल्याणकारी योजनाएं भारी रहीं?
इस सवाल का आधा जवाब तो पहले दिया जा चुका है। कोविड कुप्रबंधन रहा, लोगों की जान गई लेकिन उसे भाजपा ने संभाल लिया। मुझे यह कहने के लिए क्षमा करें कि कोविड ने भारतीय समाज की किसी सामूहिक चेतना को नहीं झकझोरा है। या तो भारतीय समाज नैतिकता के सबसे निचले धरातल पर चला गया है जिसे मैं समझ नहीं प रहा हूँ अथवा कोई और बात है। लोगों ने हजारों मौतों को सामूहिक रूप से नहीं लिया। जिसके घर कोई मरा, वही मरा। पड़ोसी को कई फ़र्क नहीं पड़ा। फिर यह सामाजिक चिंता और चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया। अगर बना भी तो यह एक बहुत ही छोटे लेकिन संवेदनशील नागरिकों का मुद्दा बनकर रह गया। भारत की जनता रोजीरोटी के मामलों में इतनी ज्यादा उलझ चुकी है कि जब तक वह इससे उबर नहीं जाती, वह ऐसे मुद्दों पर कैसे सोचेगी? याद रखें हर व्यक्ति वोट देता है। कोविड का मुद्दा जैसे भाजपा के समर्थकों के लिए था ही नहीं।
रोजगार के मुद्दे पर यह सरकार भाजपा सरकार नाकामयाब रही है। केवल शैक्षिक बेरोजगारों के एक हिस्से में बेचैनी देखी गयी है। बाकी सब लोग इस सरकार के साथ खुश हैं। मत भूलिए बेरोजगार एक मनुष्य है जिसकी जाति, लिंग, धर्म, परिवार, परवरिश सब कुछ मायने रखता है।
मैं एक बार फिर कहूँगा कि भारत का वोटर भी उस झिलमिल तस्वीर की तरह जो अलग-अलग जगहों से देखने पर अलग-अलग दिखाई पड़ता है।
गैर यादव ओबीसी को अखिलेश यादव अपने साथ जोड़ने में असफल रहे?
नहीं। अखिलेश यादव या सपा को केवल यादव-नॉन यादव के रूप में देखना एक बदमाशी है। सपा का टिकट वितरण इसकी गवाही नहीं देता। सपा द्वारा 35 प्रतिशत से ज्यादा वोट पाना भी इसकी गवाही देता है कि इस नैरेटिव में कोई खास दम नहीं है। हाँ, बसपा के वोटों में पाँच प्रतिशत के आसपास की गंभीर गिरावट देखी जा रही है। इसने बसपा का खेल खत्म जैसा कर दिया तो अखिलेश यादव का खेल बिगाड़ दिया है। अब मेरी ऊपर वाली बात फिर से पढ़ें तो यह बात समझ में आ जाएगी कि आज भी अनुसूचित जातियाँ बहुत ही दिक्कत में हैं। भाजपा ने बस उनका पेट भरना शुरू कर दिया। परिणाम आपके सामने है। सवाल है कि पहले पेट तो भरे, राजनीतिक चेतना उसके बाद आएगी। बसपा और सपा को 2007 से 2017 तक जितना काम इस दिशा में करना था, वह नहीं कर पायीं। इसका फल वे भुगत रही हैं। बाकी जहाँ पर उन्होंने काम किया है, उसका उन्हें राजनीतिक लाभ मिला है। आज कैडर के स्तर पर सपा भाजपा को टक्कर दे रही है। उसने ओबीसी का एक निश्चित राजनीतिकरण किया है।
मायावती के मूल वोट बैंक जाटव में भी बीजेपी सेंधमारी करती दिख रही है ?
आप एक नौजवान पत्रकार हैं। आपका यह सवाल बहुत ही घिसा-पिटा है। इसे रिफ्रेम कीजिए। राजनीति कोई पत्थर का बाँट नहीं है जो जस का तस रह जाए। बदलाव स्वाभाविक है। वैसे आपके सवाल का जवाब पहले ही दे दिया है।
इस चुनाव में जाति और धर्म से इतर एक नए वर्ग का उदय हुआ है जिसे पीएम लाभार्थी नाम देते हैं?
लाभार्थी को जाति से अलग न देखें। इसमें मुख्यातया कौन शामिल है? अनुसूचित जातियों के लोग, अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल दस्तकार जातियाँ, घुमंतू और विमुक्त जन। इनको अभी तक आप राशन नहीं दे पाए। कांग्रेस की सरकार राइट टू फूड लेकर आई। सरकार चली गई। भाजपा सरकार राइट टू फूड को चुनावी तरीके से लागू कर रही है और कुछ पत्रकार और बुद्धिजीवी इसे उसी तरह से पेश कर रहे हैं।
यूपी विधानसभा चुनाव के परिणामों का दूरगामी असर 2024 के संसदीय चुनाव में भी दिखेगा?
बिल्कुल दिखेगा। यह भाजपा के पक्ष में दिखेगा, वह भी तब जब विपक्ष सोया रहे। फिर भी इसी चुनाव ने अखिलेश यादव और उनके सहयोगियों ने भाजपा की साँस चढ़ा रखी थी, तो यह सब इतना आसान नहीं होगा। हर चुनाव एक स्वतंत्र चुनाव भी होता है।
1985 के बाद पहली बार यूपी में किसी मुख्यमंत्री की सत्ता में वापसी हो रही है।क्या यह जीत ब्रांड मोदी के बरक्स ब्रांड योगी को स्थापित करेगी?
मैं इस सवाल का जवाब नहीं देना चाहूँगा।
रमाशंकर सिंह पेशे से इतिहासकार हैं। कानपुर में रहते हैं और अभी हाल ही में ‘नदी पुत्र : उत्तर भारत में निषाद और नदी’ शीर्षक से किताब लिखी है।
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